फिलिप के। डिक का कथन इंगित करता है कि कृत्रिम या निर्मित वास्तविकताओं से अमानवीय मानव व्यवहार और पहचान का उदय होता है। जब लोग भ्रम या धोखे से भरे वातावरण में रहते हैं, तो उनकी धारणाएं और बातचीत बदल जाती है, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर खुद और दूसरों की सतही समझ होती है। यह चक्र बताता है कि यदि व्यक्तियों को झूठी वास्तविकताओं द्वारा आकार दिया जाता है, तो वे वास्तविक मानव अनुभवों से अलग हो सकते हैं।
इसके अलावा, यह विचार व्यक्तिगत पहचान पर समाज के प्रभाव पर एक व्यापक टिप्पणी को दर्शाता है। यदि वह संदर्भ जिसमें कोई व्यक्ति मौजूद है, वह नकली है, तो उनके कार्य भी विद्रोही या गढ़े जा सकते हैं। इस विषय की डिक की खोज हमें व्यक्तियों के रूप में हमारी प्रामाणिकता पर प्रौद्योगिकी, मीडिया और सामाजिक मानदंडों के निहितार्थों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करती है।